यदि दो एडल्ट कई वर्षों तक एक साथ रिलेशन (लिव इन) रहते हैं और सहमति से संबंध बनाते हैं, तो यह माना जाएगा कि उन्होंने यह रिश्ता अपनी मर्जी से चुना है और इसके अंजामों को लेकर जागरूक थे. ऐसे में यह आरोप लगाना कि यह रिलेशन शादी के वादे पर आधारित था, स्वीकार नहीं किया जा सकता. सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस संजय करोल और जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच ने रवीश सिंह राणा बनाम उत्तराखंड सरकार केस में याची रवीश सिंह राणा की लीव मंजूर करते हुए यह कमेंट किया है. सुप्रीम कोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए एफआईआर और सभी परिणामी कार्यवाही को रद्द कर दिया, तथा इसे न्यायालय की प्रक्रिया का दुरुपयोग बताया. कोर्ट ने उत्तराखंड हाई कोर्ट के 11.12.2024 के विवादित निर्णय को भी खारिज कर दिया है.
उत्तराखंड के जिला उधम सिंह का मामला
मामला उत्तराखंड के जिला उधम सिंह नगर के थाना खटीमा का है. इस प्रकरण में एफआईआर संख्या 482/2023 दर्ज की गयी थी. याचिका के अनुसार एक युवती ने आरोप लगाया कि 2021 में फेसबुक पर उसका सम्पर्क रवीश सिंह राणा से हुआ. दोनों के बीच बातें होने लगीं. दोनों एक दूसरे को पसंद करने लगे. इसके बाद बात आगे बढ़ी और वह रवीश सिंह राणा के साथ लिव-इन रिलेशन में आ गई. एफआईआर में युवती ने रवीश सिंह राणा पर शादी का झूठा वादा करके शारीरिक संबंध बनाने और यौन उत्पीड़न करने का आरोप लगाया गया. तहरीर के आधार पर रवीश के खिलापफ धारा 376, 323, 504 और 506 आईपीसी के तहत रिपोर्ट दर्ज की गयी। रवीश सिंह राणा ने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 528 (सीआरपीसी की धारा 482 के अनुरूप) के तहत उत्तराखंड हाई कोर्ट के समक्ष प्राथमिकी को रद्द करने की मांग की. हाई कोर्ट ने आवेदन को खारिज कर दिया.
सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का दिया हवाला
सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान दीपक गुलाटी बनाम हरियाणा राज्य (2013) 7 एससीसी 675 और सोनू @ सुभाष कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2021) 18 एससीसी 517 का हवाला दिया गया. कोर्ट अदालत ने पुष्टि की कि शादी करने के वादे का उल्लंघन करना झूठा वादा नहीं है जब तक कि यह साबित न हो हो जाए कि वादा करते समय अभियुक्त का कभी भी शादी करने का इरादा नहीं था. बेंच ने यह भी कहा कि 19.11.2023 का समझौता जिसमें पक्षों के बीच प्रेम और प्रतिबद्धता को स्वीकार किया गया था 18.11.2023 को जबरन यौन संबंध बनाने के आरोप का खंडन करता है।
इच्छा का मतलब शादी के वादे का प्रमाण नहीं
पीठ ने यह भी कहा कि लंबे समय तक चले लिव-इन रिलेशन में यह संभव है कि दोनों पक्ष विवाह की इच्छा प्रकट करें, लेकिन केवल यह इच्छा इस बात का प्रमाण नहीं हो सकती कि यह संबंध शादी के वादे की देन था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पिछले कुछ दशकों में समाज में बदलाव आया है। अब अधिक महिलाएं आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं और अपनी जिंदगी के फैसले खुद ले सकती हैं। इसके चलते लिव-इन रिलेशनशिप की संख्या में भी वृद्धि हुई है।
टेक्निकल दृष्टिकोण अपनाना सही नहीं
कोर्ट ने कहा, “ऐसे मामलों में अदालत को तकनीकी दृष्टिकोण नहीं अपनाना चाहिए, बल्कि इस बात पर विचार करना चाहिए कि संबंध कितने लंबे समय तक चला और दोनों पक्षों का आचरण क्या रहा। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि दोनों की आपसी सहमति से यह संबंध बना, चाहे उनका इसे विवाह में बदलने का कोई इरादा रहा हो या नहीं।”

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